जब मै दर्शन करने मंदिर गया तब देखा
वही एक झाड के निचे, खुले आसमान के तले,
दो पथ्थर सिंदूर से रंगाकर रखे हुए थे
बाजु मे कुछ फूल पड़े हुए थे
और कालिख से काला पडा दिया, आधी जली हुई बाती के साथ
वहा रखा हुआ था
वो मई महीने के दिन थे, धुप तप रही थी
झाड के सूखे पत्ते उस रंगे हुए पथ्थर पर गिर रहे थे,
ना उनपर छत थी ना कोई चादर ओढी थी
कडी धुप उनपर पडी थी
मंदिर मे आनेवाले लोग, मंदिर मे लगाए कूलर के सामने बैठकर,
ठण्ड का लुफ्त उठा रहे थे,
कुछ बाहर दुकानपर लस्सी शरबत पी रहे थे
और भगवान धुप मे तप रहे थे
किसी को भगवान की दया न आयी
खुद तो कूलर के सामने बैठकर और ठंडा पीकर गर्मी से बचाव कर रहे थे
और अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति को दर्शा रहे थे
ना किसी ने उस तेज धुप मे तप रहे भगवान के ऊपर छाता खोला
ना अपना दुपट्टा ओढकर छाव लाने के लिए किसी का हृदय हिला
और नाही किसी ने ऐसे तेज धुप मे, खुले मे,
“किसी भगवान को बिठाना चाहिए या नही” इसपर बहस की
जरा सोचो, क्या ऐसे लोगो को भगवान प्रसन्न होगा
जो भगवान की कदर नही करते, खुद का स्वार्थ है देखते
जिस के बलबूते सुख की कामना करते है
उसी भगवान को बेहाल करते है
ये सब देखकर लगा
शायद लोग अपनी सब जिम्मेदारिया उसके कंधेपर डाल,
भगवान को बडा होने की सजा दे रहे थे
या भगवान खुद को भगवान होने की सजा पा रहा था
इसीलिए तो कहते है “धोती नही तो पहनो कच्छा, धनी से गरीब अच्छा“